Friday, October 10, 2025
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कातते-बुनते: एक राष्ट्र, एक खुदकुशी, और 1824 के पेरिस से एक सबक

आज से दो सौ साल पहले फ्रांस में एक शख्स हुआ करते थे। उनका नाम था जैक पूशे। अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत उन्होंने ललित लेखन से की, फिर वे औषधियों के काम में लग गए। उसमें भी मन नहीं लगा तो कानून की ओर मुड़े, फिर प्रशासनिक सेवा में गए और अंततः पुलिसबल में काम करने के बाद पुलिस अभिलेखागार का काम देखने लगे। उनके जीवनकाल में ही फ्रांस की क्रांति हुई थी। बेशक, और पढ़े-लिखे लोगों की तरह वे भी क्रांति के समर्थक ही थे लेकिन कुछ समय के लिए ही, फिर राजशाही के साथ हो लिए। वैसे तो वे कोई बहुत चर्चित व्यक्ति नहीं थे, लेकिन इधर बीच उनकी याद अपने यहां चर्चा में रही एक युवक की खुदकुशी से अचानक हो आई।

पूशे ने कुछ किताबें लिखीं, अखबार का संपादन भी किया लेकिन उनके ऊपर कार्ल मार्क्स की निगाह उनके संस्मरणों से गई थी, जो 1830 में हुई पूशे की मौत के बाद छपा था। पूशे नहीं चाहते थे कि उनके जीते जी ये संस्मरण छप जाएं। उन्हें डर था कि जीते जी कहीं उन्हें समाजवादी या कम्युनिस्ट न मान लिया जाए क्योंकि संस्मरणों की बहुत सी सामग्री पेरिस पुलिस के अभिलेखों से ली गई थी।

मार्क्स ने जिस सामग्री पर खास तौर से पूशे के ऊपर टिप्पणी की है, वह 1817 से लेकर 1824 के बीच पेरिस में हुई उन आत्महत्याओं से जुड़ी है जब जैक पूशे पेरिस पुलिस के अभिलेखों के प्रभारी थे। मेरे खयाल से सामाजिक और सांस्कृतिक नृशास्त्र के एक अंग के रूप में बीसवीं सदी के आरंभ में आधुनिक एथ्नोग्राफी के आने से सौ साल पहले खुदकुशी पर किया गया पूशे का इतना विवरणात्मक काम अपने आप में क्लासिक माना जाना चाहिए। इसमें दिए आंकड़े और सामग्री इसे अनुशीलन के स्तर पर बनारस में मौतों पर जोनाथन पेरी के किए काम के स्तर का बनाती है।

बहरहाल, बैंगलुरु में अतुल नाम के एक युवक की खुदकुशी पर जो चौतरफा मर्दवादी स्यापा पसरा है, शायद यह हल्ला साल डेढ़ साल पहले सही परिप्रेक्ष्य में होता तो आज ऐसी आत्महत्याओं पर कुछ समाधानपरक बात हो पाती। कुछ मौतों को रोका भी जा सकता था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2022 की रिपोर्ट में पहली बार सामने आया था कि संख्या के मामले में पहली बार युवाओं और कारोबारियों की खुदकुशी किसानों की खुदकुशी को पार कर गई है।

आंकड़े से इस नई महामारी की भयावहता को समझा जा सकता है। एनसीआरबी के अनुसार 2022 में अकेले 1,71,000 खुदकुशी से हुई मौतों के मामले दर्ज किए गए। यह 2021 यानी कोरोना की दूसरी और सबसे खतरनाक लहर वाले साल के मुकाबले सवा चार प्रतिशत ज्यादा थी। अगर 2018 से तुलना करें, तो 2022 की दर 27 प्रतिशत ज्यादा है।

हम नहीं जानते कि इस साल या पिछले साल की सूरत कैसी है, लेकिन दो साल पहले ही यह देश दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्याओं वाला बन चुका था। वैसे, एनसीआरबी के समानांतर लान्सेट पत्रिका और विश्व स्वास्‍थ्य संगठन की रिपोर्ट को देखें, तो पता चलता है कि दसेक साल पहले ही भारत आत्महत्याओं का सबसे बड़ा ठिकाना बन चुका था। एनसीआरबी वाले देर से इस निष्कर्ष पर आए, लेकिन समाज और राजनीति ने कुछ ज्यादा ही देर कर दी।

जैक पूशे ने ठीक दो सौ साल पहले 1824 में पेरिस की आत्महत्याओं के जो आंकड़े अपने संस्मरणों में गिनवाए हैं, उनके साथ तुलना करने से दो बातें आज के भारत में समान दिखती हैं। पहली, खुदकुशी के कारण और दूसरी, सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि। एनसीआरबी ने 2022 की आत्महत्याओं के जो कारण गिनवाए हैं वे दो सौ साल पहले के पेरिस में भी समान थे- पारिवारिक क्लेश, शारीरिक और मानसिक बीमारी, गरीबी, बेरोजगारी, प्रतिष्ठा खोने या नाकामी का डर।

जाहिर है, आत्म‌हत्या के तमाम कारण ऊपर से देखने में भले निजी लगते हों, लेकिन उनकी एक सामाजिक पृष्ठभूमि है। इस लिहाज से पूशे का लिखा और उसके ऊपर कार्ल मार्क्स की टिप्पणी कालजयी है।

जैक पूशे लिखते हैं, “सालाना हो रही आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या, जो हमारे बीच नियमित घटने वाली एक सामान्य सी चीज थी और है भी, उसे हमारे समाज की गड़बड़ बनावट का लक्षण समझा जाना चाहिए। कभी-कभार जब कारोबार मंदा हो और उद्योग संकट में हों, जब सर्दियां कठिन हो जाएं और खाने के लाले पड़ जाएं, तब यह लक्षण पहले ही कहीं ज्यादा खास बन जाता है और महामारी का चरित्र अख्तियार कर लेता है। फिर इसी के अनुपात में जारकर्म और चोरी भी बढ़ जाती है। वैसे तो खुदकुशी का सबसे बड़ा कारण गरीबी है, लेकिन हमें यह हर वर्ग में देखने को मिलती है। रईसों से लेकर कलाकारों और नेताओं तक, सब में।”

बताया जा रहा है कि अतुल की मासिक तनख्वाह चौरासी हजार रुपये थी। यानी, स्टेट ऑफ इनिक्वालिटी इन इंडिया रिपोर्ट के हिसाब से वह देश के उच्च दस प्रतिशत लोगों में था क्योंकि नब्बे प्रतिशत भारतीयों की तनख्वाह पचीस हजार रुपये प्रतिमाह से कम है। सोचा जाना चाहिए कि कमाई के मामले में निचले नब्बे फीसदी लोगों के बीच कितनी आत्महत्याएं होती होंगी। हम नहीं जानते। जानना भी नहीं चाहते। अतुल से ज्यादा भयावह लेकिन अप्रचारित खुदकुशी भोपाल के एक सामाजिक कार्यकर्ता जावेद अनीस की है जो इसी हफ्ते हुई, लेकिन चर्चा से गायब है। यानी, समाज की बनावट एक कमाऊ प्रोफेशनल से लेकर एक फ्रीलांस कार्यकर्ता तक सबको निगल रही है।

आस्तिक हो या नास्तिक, सब मर रहे हैं। आस्तिक मरने के बाद बेहतर दुनिया का तसव्वुर करता है, नास्तिक को कहीं कोई राहत नहीं होती। दोनों अपनी-अपनी वजहों से अपनी जान ले लेते हैं। वर्ग, जाति, पेशा, आस्‍था, हर दीवार को तोड़कर खुदकुशी की महामारी फैली है। इसलिए यह सामान्य है, प्राकृतिक है। प्राकृतिक इस मायने में कि- जैसा पूशे लिखते हैं- यह हमारे समाज की प्रकृति में ही है कि वह इतनी आत्महत्याओं को जन्म दे रहा है। समाज की प्रकृति पर बहुत बात की जा सकती है, लेकिन फिलहाल अपने समाज को समझने के लिए कुछ आंकड़े ही काफी होंगे।

इसी हफ्ते सरकार ने बताया है कि भारत में सन 2000 के बाद आने वाला प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया है। इतना पैसा आने के बावजूद जीडीपी गोता मार रहा है। इसी के समानांतर फिक्की ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी है जिसमें बताया गया है कि लगातार पंद्रह साल से मुनाफा कमा रही कंपनियों ने महंगाई के हिसाब से कर्मचारियों का वेतन नहीं बढ़ाया है। यानी, देश में जितना पैसा बाहर से आ रहा है वह ज्यादातर कंपनियों की जेब में जा रहा है, लोगों के पास नहीं पहुंच रहा। शीर्ष एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 53 प्रतिशत संपदा ऐसे ही नहीं इकट्ठा हो गई।

इसके उलट जनता का हाल देखिए. 2017-18 में ग्रामीण भारत में औसत मासिक आय नौ हजार रुपये के ऊपर थी, वह पिछले वित्त वर्ष में गिरकर आठ हजार रुपये के नीचे आ चुकी है। शहरी कमाई में मामूली इजाफा हुआ है। महंगाई चौदह महीने में अभी सबसे ज्यादा है जिसका सीधा असर रसोई पर पड़ा है। दाल, चावल, रोटी, सब्जी नवंबर तक सात प्रतिशत महंगे हो गए हैं।

अब पूशे को याद करें, जो कहते हैं कि जब रोटी के लाले हों और काम-धंधा संकट में हो, तब खुदकुशी महामारी का रूप ले लेती है। उन्होंने लिखा था, “पुलिस प्रशासन में मैं जिस पद पर था वहां खुदकुशी मेरी जिम्मेदारियों का एक हिस्सा थी। मैं यह जानना चाहता था कि खुदकुशी के लिए लोगों को प्रेरित करने वाले कारणों में से क्या कोई ऐसे कारण भी हैं जिनके प्रभाव को कम किया जा सकता हो। मैंने इस विषय पर खूब काम किया। मैंने पाया कि समाज के ढांचे को पूरी तरह बदलने वाले सुधारों से कमतर कोई भी प्रयास निरर्थक ही होगा।”

एक आदमी दो सौ साल पहले यह बात कह रहा था जो व्यवस्‍था का हिस्सा था। अब पलट कर 2024 के भारत को देखिए जहां एक खुदकुशी के बहाने सर्वोच्च अदालत में औरतों को पुरुषों का खलनायक बनाने की कोशिश चल रही है। अब तक तो हम यही मानते आए थे कि साझा आपदाएं हमारी साझा मनुष्यताओं को उभारती हैं। दुर्भाग्य से, हम गलत निकले। जब धरती फट रही हो, तब अपनी पहचान की अलग कब्र खोदना पाषाणकालीन विवेक को टक्कर देने वाली हरकत है।

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