Saturday, October 11, 2025
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दृश्यम: ‘अकी कौरिस्मकी’ का फिल्म संसार

अकी ओलवी कौरिस्मकी मेरे देखने के हिसाब से नए निर्देशक हैं। देखने के क्रम से ही कहूं तो इनकी पहली फ़िल्म ‘द मैन विदाऊट अ पास्ट’ से वास्ता हुआ।

इनकी इस फ़िल्म में कई सुंदर चीजों से पाला पड़ा। पहली यह कि इनकी फिल्मों में समय और उसकी स्थिरता बिखरी पड़ी है। समय और स्थिरता से तात्पर्य यह है कि जहां समय है, वहां जीवन सुकून के रूप में पसरा रहता है। अगर आपने विम वेंडर्स की ‘परफेक्ट डेज’ देखा हो तो इस चीज को समझ सकते हैं। आज के दौर में जीवन की गति, समय की गति से चिथड़ी हो चुकी है।

दूसरी चीज जो है, वह है सिम्पलीसिटी। कहानी में सादगी और सरलता का अपना अलग किस्म का औदात्य चमकता है। रचना को सादगी ही महानता प्रदान करती है। थ्रिलर्स बेचैनी और घबराहट पैदा करते हैं। हांलाकि कमोबेश यह भी वही है, लेकिन स्थिरता और इशारे में चलती हुई यह फिल्म कहन की एक अलग ही भाव भंगिमा पैदा करती है।

तीसरी चीज जो है, वह है -आंखों का भाव और उसका स्टिलनेस। इस फ़िल्म में आंखों के भाव को पढ़ने के लिए भी एक उद्यम की जरूरत है।फ़िल्म में बहुत से संवादों को आंखों के लिए छोड़ा गया है।चाक्षुष संवादों से भरी हुई ऐसी फिल्में बहुत कम हैं।

चौथी चीज जो है रंगमंचीय यूनिफोर्मिटी। अगर आपने ईरानी फ़िल्म ‘द काऊ’ देखा हो तो पात्रों के समूहों को एक साथ एक लय में ठहर जाना/स्टील हो जाना बेहद आकर्षित करता है। और यह बिना किसी संगीत के ही रंगमंचीय प्रभाव और धुन पैदा करता है।

अकी कौरिस्मकी की खासियत

अकी कौरिस्मकी अपनी तरह के अलग किस्म के निर्देशक हैं। अपनी फिल्मों में वे कविता-सा प्रभाव छोड़ते हैं। यह फ़िल्म शांत रस में चलते हुए एक अलग ही लेवल का काम है। ऐसा लगता है कि उनकी फिल्म शांत नदी-सी है, जिसके अंदर सैकड़ों हलचलें हैं।

यह फ़िल्म एक ट्राइलॉजी का हिस्सा है। तो अब इस शृंखला की दो अन्य फिल्में ‘ड्रिफ्टिंग क्लाऊड’ और ‘द अदर साइड ऑव होप’ हैं।

अचानक मुझे याद आया कि एक जमाने में करीब दसेक पूर्व जब थ्रिलर्स के बादशाह ‘पार्क चैन वुक’ की फिल्म देखते और कुछ वैसा ही खोजते अकी की फ़िल्म ‘हायर्ड ए कांट्रैक्ट किलर’ से नाता पड़ा, थोड़ी देर के लिए। तब फ़िल्म देखकर खून और प्रतिशोध के आदी दिमाग ने कहा कि क्या सड़ी हुई फ़िल्म है! और बीस पच्चीस मिनट के बाद फ़िल्म बंद करनी पड़ी। पहली बार मे ही इनकी फ़िल्म पसंद आये, इसकी कोई गारंटी नहीं।

अकी को देखने की सही उम्र शायद वह थी नहीं। कभी- कभी एक ही काम के लिए सही सही समय आता है, सर्जना को देखने परखने की सही उम्र भी आती है।

इन फिल्मों को कई खांचों में रखा गया है। यह जिस विशिष्ट जेनर में आते हैं वह है ‘डेडपैन ह्यूमर’। डेड मतलब मुर्दा या भावशून्य। लेकिन यह मुर्दनी उदासी, नैराश्य,दुख और असफलता की साथी है। यह सही है कि फिल्मों में मुर्दा शांति है। जबकि अकी के पात्र बेहद जुझारू और जीवंत है। वे लड़ते नहीं हैं। पात्र अगर बदमाश हैं तो थप्पड़ और घूंसों का प्रयोग करते हैं। बहुत अधिक हुआ तो चाकू या हॉकी निकाल कर मार देते हैं। अचानक मुझे टेरेंटिनो की याद आने लगती है। 

अकी की फ़िल्म टेरेंटिनो की जेनर की है। संगीत का जो सधा हिंसात्मक इस्तेमाल होता है, वो टेरेंटिनो करते थे। बाकी यहां हिंसा दिखती नहीं, बल्कि अकी उसे सादगी से उससे भी गहरे महसूस करवा जाते हैं। यानी थ्रिलर के वे जिस सूक्ष्म लेवल तक जाते है; पार्क, टेरेंटिनो आदि स्थूलकाय नजर आने लगते हैं। अकी का साध्य, दुःख का विशालतम और सधा हुआ प्रदर्शन है। जबकि अन्य फिल्मकारों के यहां सुख की खोज है। दुख साधन है।

‘ड्रिफ्टिंग क्लाउड’ से लेकर ‘द अदर साइड ऑव होप’ तक

बेरोजगारी पर याद नहीं कि ‘ड्रिफ्टिंग क्लाउड’ से सुंदर कोई फ़िल्म मिलेगी। यह आज के हमारे भारतीय दौर को भी ख़ूबसूरती से दिखाती है। पूंजी का दुष्प्रभाव, प्रेम और दोस्ती की मिसाल, जनता, मानवीय सम्बन्ध, करुणा आदि यहां सधे रूपक में आते हैं। यहां तक कि इस ट्राइलॉजी में एक ही चीजें बार बार आती हैं।

अब जो दूसरी फिल्म है, वह है – ‘द अदर साइड ऑव होप’। यह फ़िल्म भी लगभग एक ही थीम पर चलती हुई; युद्ध, मानवता, दोस्ती आदि की कहानियां कहती चलती है। तीनों फिल्में मिलाकर देखा जाए तो यह आजकल की सीरीज की तरह दिखती हैं।

अकी कौरिस्मकी के पास एक विशेष शैली है, सबसे ही अलग, इसका पता बहुत बाद में चलता है। उनकी अभी-अभी कुल मिलाकर चार फिल्में देखी। फॉलेन लीव्स ,’ द मैच फैक्ट्री गर्ल’,’ आई हायर्ड अ कांट्रेक्ट किलर’ जिसमें सम्मिलित है। 

ऊपरी तौर पर देखें तो उनके सभी फिल्मों की शैली एक ही है और ऐसा लगता है कि एक फिल्म के पात्र दूसरी फिल्म में। एक फिल्म की घटनाएं दूसरी फिल्म की घटनाओं में, आवाजाही करती है। और बेरोक टोक करती हुई चलती है। विजनरी निर्देशकों के साथ यही होता भी है।

Aki Kaurismäki

अकी की फिल्मों में शायद ही कोई ऐसी फिल्म हो जिसमें एक कुत्ता न हो। यह कुत्ता एक विशेष प्रकार के भाव-भंगिमा लिए हुए प्रकट होता है, जो कि किसी भी आम कुत्ते से एकदम अलग है। वह किसी लाचार और बेबस सा दिखता है। वह किसी उदास और परेशान आदमी सा ही दिखता है और कभी कभार ही भौंकता है। कई फिल्में में तो भौंकता ही नहीं है। यह एक तरह से आधुनिक सभ्यता का रूपक है जो यह दिखाता है कि स्वभावगत जो चीज नहीं चलनी चाहिए, नहीं होनी चाहिए,वह हो  रही है। एक कुत्ता भी मनुष्य के साथ रहकर  अपनी स्वभागत विशेषता खो चुका है। कई फिल्मों में जो नायक है, वह कुत्ते को बचाने का  या पालने का भी प्रबंध करता है। ये कुत्ता किसी सिग्नेचर मार्क-सा है।

एक फिल्म से कई मास्टर्स की याद

इसके अतिरिक्त उनकी फिल्में देखते हुए कई मास्टर्स की याद आती है, कुछ कुछ तो किस्लोव्स्की की भी। कुछ चार्ली चैपलिन की। चैपलिन की कई घटनाएं व भंगिमा। किस्लोव्स्की जैसी संवेदनात्मक गहराई की याद आती है‌। उनकी छाप नहीं, बस बिजली के चमक की तरह उजली याद। उनकी फिल्मों में चेहरे का हाव-भाव बेहद ही अहम और सर्वस्व है। संवाद कुछ में तो एकदम कम हैं। चेहरे के हाव-भाव से ही संवाद करते हैं। संवाद बेहद कम मात्रा में जानबूझकर रखे गए लगते हैं। बाकी संवाद की जगह दैहिक अभिनय ने फिल्मों को संवारा है,ऊंचाई दी है। 

‘हायर्ड ए कांट्रेक्ट किलर’ बहुत ही मजेदार फिल्म है और इसको तो देखा ही जाना चाहिए। उनकी शैली को भी जानने के लिए और जिन मुद्दों को ,जिन पात्रों को, और जिस भंगिमा को वे उभारते हैं इसके लिए भी ।

उनके पास शबाना आजमी/स्मिता पाटिल जैसा एक विशेष चेहरा है, जिसका नाम है- ‘केटी ऑटिनेन’। मुझे लगता है कि यह अभिनेत्री उनकी फिल्मों में, कई फिल्मों में, बार-बार आती है और ऐसा चेहरा मिलना बड़ा मुश्किल है। जिसके पास एक साथ बेचारगी, उदासी, निराशा अवसाद का प्रतिबिंबक चेहरा हो और दूसरी ओर परिस्थिति के हिसाबन इन सब चीजों का परहेज करके उसके पास एक उत्साही यौवन से भरा हुआ भी चेहरा हो। ये वो चीज है जिसे आप देखकर ही समझ पाएंगे।

उनकी फिल्मों के पात्र दरिद्र, गरीब, मासूम, मजलूम, आम लोग हैं। गरीबी हास्य भी पैदा कर देती है। त्रासद हास्य। और देखा जाए तो यह हास्य भी उनकी कई सारी फिल्मों में जुड़ा हुआ है। ये फिल्में बेहद ही कसी हुई संवेदनशील तरीके से बनाई गई और कई तरह के उपमाओं और रूपकों में चलती हुई दिखती हैं। उससे भी अधिक यह बोध होता है कि बेहद ही जिम्मेदार होकर बनाई गई हैं। एक सामाजिक जिम्मेदारी और मानवीय गरिमा के साथ। बहुत सारी चीजों को दर्शकों के लिए छोड़ा गया है और कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे दर्शक समझ ना ले,उसे जान न ले।

एक ओर ये फिल्में बेहद ही सरल और बेहद ही जटिल दिखती है। दूसरी ओर बेहद ही गंभीर और हास्यबोध के साथ। इन दो ध्रुवों को मिलने से बनने वाली ‘अकी कोरिस्मकी’ की ये फिल्में प्रशंसनीय रूप से देखी जाने लायक हैं।

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