राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के गठन के साठ वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन साठ वर्षों में अपनी प्रस्तुतियों से निस्संदेह भारतीय रंगमंच में अपनी छाप छोड़ी है और हिन्दी रंगकर्म को बहुत प्रभावित किया है। वर्ष 1964 में चार रंगकर्मियों रामामूर्ति, मीना विलियम्स, सुधा शिवपुरी और ओम शिवपुरी के साथ इस रंगमंडल की शुरूआत हुई थी जो तत्कालीन रानावि निदेशक इब्राहिम अलक़ाज़ी की परिकल्पना थी। तब से लेकर आजतक इस रंगमंडल ने उत्कर्ष देखा है तो अपकर्ष भी देखा है। ऐसी भी प्रस्तुतियां रही हैं रंगमंडल में जिनको बार बार जीवन मिलता रहा है तो ऐसी भी प्रस्तुतियां रही हैं जो अपनी शुरूआती प्रस्तुतियों में ही खारिज हो कर बंद हो गईं…

रानावि से उत्तीर्ण स्नातकों के लिए यह अवसर देता है कि औपचारिक पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद अपने अभिनय और मंचपार्श्व की अपनी क्षमता को यहाँ मांजे साथ ही व्यापक परिदृश्य पर अपने प्रदर्शन से लोगों का ध्यान खींचे। रंगमंडल में मशहूर रंगकर्मियों के काम करने की सूची लंबी है जिन्होंने व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा अर्जित की है।
नियमित प्रस्तुतियों के साथ साथ रंगमंडल का एक प्रमुख आयोजन ग्रीष्मकालीन महोत्सव है, जिसमें मई-जून के दरम्यान एक महीने तक रंगमंडल की अलग अलग प्रस्तुतियों के नियमित शो होते थे। हमने जब नाटक देखना शुरू किया था तो यह अवधि एक महीने की थी जो धीरे-धीरे घटती गई और एक सप्ताह तक पहुंच गई, दर्शकों की रूचि इसी अनुरूप रंगमंडल की प्रस्तुतियों में घटती रही। अभूतपूर्व ढंग से इस वर्ष रंगमंडल ने ग्रीष्मकालीन महोत्सव के अंतर्गत जून-जूलाई के बीच बारह प्रस्तुतियों के तीस से अधिक शो किये जो एक महीने से कुछ अधिक चली। यह देखना उल्लेखनीय है कि अभी रंगमंडल के पास ग्यारह नाट्य प्रस्तुतियां ऐसी हैं जो चल रही हैं। किसी भी रंगमंडल के लिए एक साथ ग्यारह प्रस्तुतियों को चलाना उपलब्धि है क्योंकि संसाधन वही है अभिनेता वही है। यह जानना दिलचस्प होगा कि इन अभिनेताओं ने इस चुनौती को कैसे संभाला है।

रंगमंडल की इन प्रस्तुतियों में अलग अलग मिजाज और शैली की प्रस्तुतियां है। इसमें एक तरफ संस्कृत का क्लासिक नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ है तो दूसरी तरफ ज्याँ अनुई का पाश्चात्य नाटक ‘थीव्स ऑफ कार्निवाल’ भी है। रंगमंडल ने स्व. निर्देशक त्रिपुरारी शर्मा की चर्चित प्रस्तुति ‘आधे अधूरे’ को उसके पुराने अभिनेताओं रवि खानविलकर और प्रतिभा काजमी के साथ पुनर्जीवित किया है। यहां ‘बाबूजी’, ‘माई री मैं का से कहूँ’ जैसे लोक संस्कृति में रची-बसी प्रस्तुति है तो ‘अन्धा युग’ को भी एक बार फिर रामगोपाल बजाज ने निर्देशित किया है। जिसमें अंधा युग के साथ-साथ धर्मवीर भारती को ‘बंद गली का आखिरी मकान’ की प्रस्तुति से भी श्रद्धांजलि दी गई है, इसमें अनोखा प्रयोग यह है कि निर्देशक अंकुर अलग अलग अभिनेता समूह के साथ अलग अलग तरह से इस प्रस्तुति को एक साथ करते हैं।

यहां ‘ताजमहल का टेंडर’ जैसी हास्य प्रस्तुति है तो ‘समुद्र मंथन’ जैसी भव्य प्रस्तुति भी जिसमें लोकप्रिय होने के सभी तत्व मोजूद हैं। उषा गांगुली निर्देशित ‘बांयेन’ और रामगोपाल बजाज निर्देशित ‘लैला मजनू’ इसकी अन्य प्रस्तुतियां हैं। विविधता औऱ विस्तार इन प्रस्तुतियों में सहजता से दिख जाता है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि क्या गहराई औऱ गुणवत्ता भी पर्याप्त है?

नाट्य समारोह का उद्घाटन अवतार साहनी निर्देशित ‘थीव्ज़ कार्निवाल’ से हुआ। ज्याँ अनूई के नाटक का अनुवाद वी.के. का है। नाटक चोरों के बारे में है जो एक धनी महिला के घर में चोरी की नीयत से वेश बदल कर रहने आते हैं, उन्हें लगता है कि वह महिला को धोखा देने में कामयाब हो गए हैं लेकिन अंत में पता चलता है कि महिला को सब कुछ पता था और वह भी अपनी बोरियत दूर करने के लिए इस खेल में शामिल हो रही थी। इस प्रस्तुति के दौरान बतौर दर्शक अपने को बोरियत से बचा लेना मुमकिन नहीं था. कथ्य, अभिनेता, और रंगमंच के गिमिक होते हुए भी यह प्रस्तुति असरदार नहीं बन सकी। इसका कारण है निर्देशकीय व्याख्या, दरअसल निर्देशक कथ्य में उपपाठ तलाश करके अपनी दिशा चुनता है और उसमें अभिनेता की मदद लेता है, जिसमें यहां पर्याप्त शिथिलता बरती गयी है। जिसे देखकर ऐसा लगता है कि निर्देशक प्रस्तुति को सपाट ही रखना चाहता है या अधिक से अधिक मनोरंजक बनाना चाहता है। इस प्रक्रिया में वह उपपाठ की खोज के लिए गंभीर नहीं है। उपपाठ की खोज एक आलोचनात्मक वृत्ति भी है पर आजकल के रंगमंच में इसके स्थगन पर ही अधिक जोर है।